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नारी विमर्श >> मैं भी औरत हूँ

मैं भी औरत हूँ

अनुसूया त्यागी

प्रकाशक : परमेश्वरी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6014
आईएसबीएन :978-81-88121-90

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मानव शरीर की जन्मजात विकृतियों पर आधारित उपन्यास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


 ‘हे भगवान् ! ओंकार चुप क्यों हो गया ? क्या अब वापस वही स्थित आ पहुँची है, जिससे मैं अब तक डरती आई हूँ ? जिस सच्चाई को जानकर पिछले दो पुरुष—नकुल व सौरभ—मुझे छोड़कर चले गए थे—एक प्रकार से मुझे ठुकराकर—बल्कि सौरभ ने तो अपने पौरुष की कमी ही मेरे सिर पर थोप दी थी, मुझे ही दोषी ठहरा दिया था—पर ओंकार तो मुझसे शादी कर चुका है। क्या वह अब मुझसे तलाक लेने की सोचेगा ? कितनी जगहँसाई होगी, यदि कोर्ट में यह केस गया तो। सब मुझपर कितना हँसेंगे ! कहेंगे, अरे, जब भगवान् ने ही तुझे इस लायक नहीं बनाया तो क्यों इच्छा रखती है वैवाहिक जीवन जीने की ! क्या संन्यासिनें इस दुनिया में नहीं रहतीं ? विधवाएँ नहीं रहतीं ? क्या कामक्रीड़ा इतनी अधिक महती आवश्यकता बन गई, जो इसने पूरी सच्चाई अपने होने वाले जीवनसाथी को भी नहीं बताई ? क्या पता, मीडिया इस बात को बहुत अधिक उछाल दे ! आखिर उन्हें तो एक चटपटा मसाला चाहिए लोगों को आकर्षित करने का। जिस बात को मैं इतने वर्षों से छुपाती आई हूँ, वही दुनिया के सामने मुझे नंगा कर देगी। इस नग्न सच्चाई को जानकर लोग मेरे माता-पिता को कितनी दयनीय दृष्टि से देखेंगे ! ओह ! इस वृद्धावस्था में क्या मेरे पापा, मेरे दादा जी ऐसी बातें सहन कर पाएँगे ?’

दो शब्द


मानव शरीर की जन्मजात विकृतियों पर मेरा यह प्रथम उपन्यास है। इस उपन्यास की दोनों नायिकाओं-रोशनी और मंजुला (नाम वास्तविक नहीं हैं) को लेकर उनके माता-पिता एक वर्ष पहले मेरे पास आए थे। फिर मैंने दोनों का आपरेशन किया। यह वास्तविक, सत्य घटना है। अब दोनों की शादी हो गई है। मेरे सुझाव के अनुसार रोशनी की शादी एक ऐसे पुरुष से की गई, जिसके दो छोटे-छोटे बच्चे थे और पत्नी का देहान्त हो चुका था। मंजुला की शादी एक कुँआरे युवक के साथ हुई। अब मंजुला माँ बनने वाली है। उपन्यास में उनका भविष्य मेरी कल्पना है। हर पेशे की अपनी विशेषता होती है यही विशेषता लेखन के लिए प्रेरित करती है।
आभारी हूँ दुर्गाप्रसाद की, जिन्होंने इस उपन्यास को लिखने के लिए प्रेरित किया।

अनुसूया

मैं भी औरत हूँ


रोशनी खेत की मेड़ पर धीरे-धीरे कदम बढ़ाई हुई चली जा रही थी। एक हाथ में था पीतल का लोटा और दूसरे हाथ में एक पेड़ से तोड़ी हुई पतली-सी टहनी। यदि कोई कुत्ता या आवारा जानवर उसे मिल जाता तो उन्हें मारने के लिए वह टहनी थी। प्रातः की बेला थी, साढ़े पाँच बजे का समय। पूर्व दिशा से भगवान् भास्कर धीरे-धीरे उदित हो रहे थे। उनकी स्वर्णिम किरणें हरे-भरे खेतों की हरियाली को और सुंदरता प्रदान कर रही थीं। पृथ्वी भी हरी साड़ी पहनकर मानों अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रही थी।  


रोशनी को यह समय बहुत अच्छा लगता था। इसलिए वह प्रातः अकेली ही शौच के लिए लोटा लेकर निकल पड़ती है, प्रकृति के इस रूप का रसपान करती हुई, पक्षियों का कलरव, पौधों का धीमें-धीमें सरसराना, कोयल की मीठी आवाज, सूर्य की किरणों का खेतों में, पेड़ों की डालियों पर, हरे-भरे पौधों के पत्तों पर यूँ चुपचाप अठखेलियाँ करना, रोशनी मानो इन सबके खेल में अपने आपको भी शामिल कर लेती थी।

माँ कहती, ‘अब तू बड़ी हो रही है रोशनी, अकेली इतनी सुबह बाहर शौच के लिए मत जाया कर।’ पर रोशनी हँस देती।
‘माँ, मैं अकेली कहाँ होती हूँ ? मेरे संगी-साथी तो बहुत होते हैं।’
‘कौन होते हैं तेरे साथ, बता तो जरा अपनी सहेलियों के नाम ?’ माँ पूछती तो जवाब मिलता, ‘माँ, देखो हवा मेरी सखी है, मेरे साथ अठखेलियाँ करती है, सूर्य भगवान् सुबह-सुबह प्रकट होकर मुझ आशीर्वाद देते हैं। पेड़ों की पत्तियों की सरसराहट मानो मुझसे बात करने को उत्सुक रहती है और कोयल अपनी मीठी-मीठी तान सुनाकर मुझे संगीत के लिए प्रेरित करती है। कहती है, आओ मेरे साथ संगीत की मधुर तान छेड़ो और मस्त हो जाओ।’
‘बस-बस, रहने दे अपनी कविता। लगता है, तू कवयित्री बनेगी’, माँ हँसकर कहती।
माँ की बातें सोचकर रोशनी को हँसी आ गयी। वह खिलखिलाकर हँस पड़ी, फिर स्वयं ही सकुचा उठी, ‘अरे कोई देखेगा तो क्या कहेगा ? कैसी पगली है यह, जो अकेले ही हँसे जा रही है।’ फिर उसने गर्दन घुमाकर देखा तो आसपास कोई नहीं था।

अपने विचारों में ही वह गाँव से काफी दूर निकल आई थी। कहीं घर लौटने में देर न हो जाए, यही सोचकर वह एक खेत में खड़े हुए पेड़ की ओर मुड़ गई। खेत की मेड़ पर खड़ा हुआ पीपल का पेड़ अच्छी ओट देता था। रोशनी ऐसे ही पेड़ों की ओट लेकर बैठ जाती थी शौच से निवृत्त होने। ज्यों कि वह पेड़ की आड़ में बैठने लगी, उसने चार-पाँच लड़कों को पास की एक झाड़ी के पास खड़े देखा तो वह थोड़ी सहम-सी गई। वह अपना लोटा उठाकर जाने लगी। इतने में ही दो लड़के उसकी ओर दौड़े, ‘अरे ठहर साली, कहाँ जाती है ? बड़ी मुश्किल से आज हाथ लगी है।’

रोशनी उनकी भाषा सुनकर घबरा गई। उसे लगा, इनके इरादे कुछ अच्छे नहीं है। अब वह दसवीं क्लास में पढ़ रही थी। कैशोर्य अवस्था से युवा अवस्था में पदार्पण कर रही थी। उसके स्त्रियोचित अंग विकसित हो रहे थे।

रोशनी ने जल्दी से लोट उठाया और दौड़ने के लिए तेजी से कदम उठाए, पर खेत हाल ही में जोता गया था तथा उसमें मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले पड़े थे। ऐसी सतह पर दौड़ना नितांत असंभव था। थोड़-सा प्रयास करने पर ही वह गिर पड़ी। तभी पीछा करते आते हुए दो लड़के उसके दोनों ओर आकर खड़े हो गए।

‘‘अरे भाई...तुम क्या चाहते हो ?’’ रोशनी बहुत घबरा गई थी। उसके मुँह से बड़ी मुश्किल से ये बोल निकले।
‘‘चल उठ...हमारे साथ चल। अभी तुझे बताते हैं कि हम क्या चाहते हैं।’’ उसमें से एक बोला। उसके शरीर की मसें अभी भीगी हुई थीं। हलकी दाढ़ी-मूछ आ रही थी, मुश्किल से अठारह-उन्नीस वर्ष का होगा।

‘‘चल-चल, हमारे साथ चल। हम भी मजे करेंगे और तुझे भी करवाएँगे।’’ दूसरा बड़ी कुटिलता से बोला। उसने रोशनी का एक हाथ पकड़ लिया। रोशनी की आँखों से आँसू निकलने लगे। फिर वह स्थिति की गंभीरता को देखते हुए चिल्लाई, ‘‘अरे बचाओ, मुझे बदमाशों से बचाओ।’’
‘‘चुप साली चिल्लाती है,’’ एक ने जोरदार थप्पड़ रोशनी के गाल पर मार दिया और फिर जोर से उसका मुँह हथेली से बंद कर उसे गोद में उठाकर ले चला।

रोशनी अपने हाथ-पैर चलाती रही पर उसकी बलिष्ठ बाँहों में कैद वह कुछ नहीं कर पा रही थी। पास ही के एक झुरमुट-सी जगह में एक बिछी चादर पर ले जाकर उस लड़के ने रोशनी को डाल दिया और डपट कर बोला, ‘‘यदि चिल्लाई तो इतना मारूँगा कि हाथ-पैर टूट जाएँगे। इससे अच्छा तू भी मजे ले और हमें भी लेने दे।’’ असहाय-सी रोशनी डरकर चुप हो गई कि कहीं ये सब मारपीट कर उसके हाथ-पैर तोड़ देंगे, तब फिर वह घर भी कैसे जा पाएगी ?

लड़के आपस में बात करने लगे। उनकी संख्या पाँच थी। जो रोशनी को उठाकर लाया था, वह बोला, ‘‘हम सब बारी-बारी से मजा ले लेते हैं।’’
‘‘ठीक है।’’ दूसरे चार लड़के थोड़ी दूर जाकर खड़े हो गए और पहरा देने लगे कि कहीं से कोई आ तो नहीं रहा है। रोशनी उसे अकेला देखकर बोली, ‘‘ऐ भइया....मुझे जाने दे, तेरे हाथ जोड़ती हूँ।’’

‘‘चल हट, इतनी मुश्किल से तो हाथ आई है, अब जुझे जाने दूँ। ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ मैं। यदि तूने जरा-सी चूँ-चपड़ की तो वो हाल करूँगा कि चलना-फिरना भी भूल जाएगी।’’ फिर उसने रोशनी का कुर्ता ऊपर कर दिया व उसकी सलवार खोलने लगा।। रोशनी के हाथ प्रतिरोध को उठे तो उसने उसके हाथ पर अपना पैर रख दिया।

रोशनी चीख उठी पर वह निर्ममतापूर्वक हंसा और बोला, ‘‘मुझे जो मैं चाहता हूँ, करने दे, नहीं तो अंजाम बहुत बुरा होगा।’ वह बड़े वहसीपन से रोशनी के नाजुक अंगों को मसलने लगा। रोशनी का सर्वांग घृणा से सिहर उठा। यह आज का इनसान कैसा जानवर बन गया है ! उसकी इच्छा हुई कि जोर से उसके मुँह पर थूक दे पर फिर डर गई कि कहीं यह सचमुच उसकी नाजुक हड्डियाँ ही न तोड़ दे। पर जब वह उसकी सलवार खिसकाने लगा तब रोशनी सहन न कर पाई और उसने एक जोरदार लात लड़के के पेट में मार दी। अब तो वह लड़का गुस्से से आग बबूला हो गया, उसे रोशनी के स्तन पर जोर से काट लिया। रोशनी चीख पड़ी।

‘‘चुप रह रांड...नहीं तो अभी और बुरा हाल करूँगा’’, रोशनी अर्धचेतन अवस्था में पहुँच गई थी। उसका फूलों जैसा नाजुक बदन, निष्पाप हृदय ! उसे रौंदा जा रहा था। वह असहाय थी, असमर्थ थी अपनी रक्षा करने में। कुछ ही मिनटों में वह लड़का अपने कपड़े झाड़ते हुए वापस पहनने लगा। दूर खड़े हुए लड़के दौड़कर आए और बोले, ‘‘अरे सुरेश...हो गया, मजा आया।’’

‘‘खाक मजा आया...यह साली तो हिजड़ा है।’’
‘‘हिजड़ा !’’ बाकी चार के मुँह से एक साथ निकला।
‘‘हाँ भाई, हिजड़ा ही है। हमने बेकार अपना समय बर्बाद किया, चलो यहाँ से।’’
‘‘तू सच कह रहा है।’’ उन चारों को शायद विश्वास नहीं हो पा रहा था।
‘मैं क्यों झूठ बोलूँगा, तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है तो तुम खुद देख लो, नीचे तो कुछ है ही नहीं।’’
‘‘पर ऊपर तो सब है’’, दूसरे लड़के का इशारा रोशनी के उभरते हुए स्तनों की ओर था।

‘‘हाँ-हाँ, ऊपर ही है पर नीचे कुछ नहीं। अब जल्दी चलो यहाँ से, कहीं कोई आ नहीं जाए।’’ फिर वह मुड़ा, रोशनी की ओर देखकर बोला, ‘‘घर में किसी को इस बारे में बताया तो तेरे बाप-भाई सबको ऊपर पहुँचा देंगे।’’ अर्धचेतन अवस्था से रोशनी जागृत हुई। उस लड़के की कहीं हुई बातें उसके कानों में भी पड़ी थीं। बड़ा अजीब लगा था उसे सुनकर। पर इस समय तो उसे घर पहुँचने की जल्दी थी। जो कुछ उसके साथ हुआ, वह एक वज्रपात था उसके लिए। वह फिर सिहर उठी थी। जल्दी से उठकर उसने सल्वार पहनी व अपने कपड़े ठीक किए। वह चादर जो उन लोगों ने बिछाई थी उसके नीचे, वह वैसी ही पड़ी थी। कहीं चादर को याद करके वापस लेने न आ जाएँ, यह सोचकर वह जल्दी से घर की ओर चल दी। ‘इतनी दूर मत जाया कर, अकेली लड़की कहीं कुछ हो गया तो हम किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे।’ माँ की कहीं हुई बातें अब उसे याद आ रही थीं। पंद्रह बरस की किशोरी इस आधे घंटे में तीस वर्ष की महिला के रूप में परिवर्तित हो गई थी। वह एक पत्थर पर बैठकर फूट-फूटकर रो पड़ी कि वह यह बातें माँ को कैसे बता पाएगी। जाते-जाते उस लड़के के मुँह से कही हुई बात ने उसे और अधिक बेचैन कर दिया था। उसका मानसिक असंतुलन हो गया था। बार-बार उसे यह शब्द याद आ रहे थे कि ‘अरे यह तो हिजड़ा है।’ खैर..उसने अपने आपको सँभाला। अभी भी मन में यह कशमकश चल रही थी कि वह यह बात अपनी माँ को बताए या नहीं, तभी उसे दूसरे लड़के के शब्द याद आये—‘अगर घर में किसी को बताया, तो तेरे बाप और भाई को ऊपर पहुँचा देंगे’, रोशनी सिहर उठी। ‘नहीं-नहीं...वह यह बात अपने तक ही सीमित रखेगी, किसी से कहेगी नहीं, अपनी सबसे अच्छी दोस्त अंजुम से भी नहीं। इन वहशियों का कोई ठिकाना नहीं, क्या कर दें।’ मन में तमाम उथल-पुथल को दबाती हुई, जैसे-तैसे गिरती-पड़ती रोशनी घर पहुँची। माँ चौके में चूल्हे पर सुबह के नाश्ते के लिए पराँठे बनाने में लगी हुई थी व दूध गरम करके रखा हुआ था।

‘‘अरी...रोशनी आज तो बड़ी देर लगा दी, कहाँ रह गई थी ? आ, दूध पी ले, भूख लगी हो तो नाश्ता भी कर ले।’’
‘माँ...मुझे भूख नहीं है’’, बड़ा प्रयत्न करके रोशनी ने जवाब दिया। आवाज उसके मुँह से निकल ही नहीं रही थी। निकलती भी कैसे ? एक भयंकर दुर्घटना उसके साथ घटित हुई थी। हाँ, उसी के साथ उसका हृदय उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था। यह मेरे साथ क्यों हुआ ? कैसे हो गया ? अंदर के कोठे में पहुँचकर रोशनी चारपाई पर गिर पड़ी और सिसक-सिसककर रोने लगी।

मास्टर तुलीराम जी का छोटा परिवार था, दो लड़कियाँ और एक लड़का। मास्टर जी ने एम.एस-सी. गणित में किया और अपने गाँव से सटे हुए शहर गाजियाबाद में नौकरी कर ली। मास्टर साहब के पिता चौधरी सदानंद एक समृद्ध किसान थे। सत्तर बीघा जमीन थी। ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, पर घर-गृहस्थी की गाड़ी चलाने में निपुण थे। अपने घर की समस्या सुलझाने के साथ-साथ गाँव वालों की समस्याएँ भी बड़े अच्छे ढंग से सुलझाते थे। जब भी किसी किसान को कोई परेशानी होती, वह सदानंद जी के पास दौड़ा हुआ आता। चौधरी जी हर तरह से उसकी सहायता करने में पीछे नहीं हटते थे। अगर किसी को पैसे की जरूरत होती, तब कितनी ही परेशानी का सामना क्यों न करना पड़े, वह तुरंत मदद करते। उनकी सहृदयत का लोग गलत फायदा भी उठाते थे। एक बार जो उनसे कर्जा ले लेता था, वह लौटाने का नाम नहीं लेता था। अनेक बार पत्नी चंद्रमुखी झुँझलाती तो हँसकर कह देते, ‘अरी चंदा, क्यों अपने चाँद जैसे मुख को गुस्से से बिगाड़ रही हो, वह पैसे लौटा देगा, कहीं भागा तो नहीं जा रहा न ! भगवान् ने मुझे देने लायक बनाया है, तभी तो देता हूँ। वे भी किसी और के दरवाजे क्यों नहीं जाते, मेरे पास ही क्यों आते हैं ? क्योंकि उन्हें यहाँ कहने भर की देर होती है, झट से पैसा मिल जाता है इसलिए।’ चंद्रमुखी गुस्से से कहती, ‘उन्हें यह भी मालूम है कि एक बार लेने के बाद कोई तकादा करने नहीं आएगा।’


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